Friday, 27 December 2013

*** इंसानियत ***



yet another stupid poem or what ever you may call it


मेरी आवाज़ में आवाज़ मिलाते रहिये |

हमने कल रात जलाये थे जो दिए ,
उनकी लौ की रख को हटाते रहिये  |

नींद आती है तो तक़दीर भी सो जाती  है |
कोई अब सो ना सके, वह गीत गाते रहिये |

भूखा सोने को तैयार है मेरा यह देश ,
आप परिंदे के ख़ाब उसे दिखाते रहिये  |

वक्त के हाथ में फूल भी है, पत्थर भी है  |
चाह फूलों की है तो पत्थर भी खाते रहिये  |


जाने कब आखिरी खत, आपके नाम आ जाये,
आपसे जितना बन सके अनुराग लुटते रहिये  |

समय ने जब भी अँधेरे से दोस्तीं की है ,
जला के अपना घर , हमने रौशनी की है  |

हाँ तुम, " मेरी भावनाओ को " और आप
भी इसी तरह मेरी भावनाओ को पढते , सुनते  रहिये   |

मेरी आवाज़ में आवाज़ मिलाते रहिये ,
भावनाए अगर दिल तक पहुचे तो अपनी समझ अपनाते रहिये,
और अगर दिल तक पहुंची तो अगले कुछ पल तक मुस्कुराते रहिये  |



Saturday, 27 July 2013

ज़िन्दगी क्या है ?



forgive me guys, if you don't like it, it was a amateur piece, i wrote it long back just for fun.



ज़िन्दगी क्या है?
किस्से पूछूं?

शायद कुछ सांसें जो हवा से मिल गयी
कुछ शब्द जो होठो तक आ नहीं पाए
कुछ आंसूं जिनकी नुमाइश हम कर ना सके
कुछ शख्स जो घर कर गए है दिल में

या शायद 

कुछ चंद पल ही हैं जो बार बार आते है
उनके हालात भी एक से ही होते है
उनका एहसास भी एक सा ही होता है
सिर्फ आइना बदलता है हमारा
साथ में अगर कुछ बदलता है तो वो है वक़्त

या

फिर कोई उत्सव है ज़िन्दगी
ईद या दिवाली जैसा
ग़म हो चाहे जितने हर
त्यौहार में उन्हें छुपा लेते है हम
ज़िन्दगी में तकलीफ हो चाहे जितनी खुद को संभाल लेते है हम
गर उत्सव ना होती ज़िन्दगी
अँधेरे में चिराग ढूढने की
चाहत कैसे रख पाता ये मन

असल में ज़िन्दगी की परिभाषा कहूँ तो
कुछ फूलों से बना आशियाना है
जिस में दफन है
दिन कुछ बेकरारी के,
थोड़ी से तन्हाई के

किसी की 2 पल की झलक पाने की ख्वाइश के
1 बुझती लौ को सँभालने की आस के
कुछ बन्ने की चाहत के
किसी अनुराग से मिलने की बेकरारी के

जीते तो हम ज्यादा या कम इन्ही पलों को है
जो इससे ज्यादा जीते है
वो मरने के बाद भी ज़िन्दगी जीते है
जो इससे कम जीते है
उन्हें ज़िन्दगी जीना सिखा देती है|