Friday 27 December 2013

*** इंसानियत ***



yet another stupid poem or what ever you may call it


मेरी आवाज़ में आवाज़ मिलाते रहिये |

हमने कल रात जलाये थे जो दिए ,
उनकी लौ की रख को हटाते रहिये  |

नींद आती है तो तक़दीर भी सो जाती  है |
कोई अब सो ना सके, वह गीत गाते रहिये |

भूखा सोने को तैयार है मेरा यह देश ,
आप परिंदे के ख़ाब उसे दिखाते रहिये  |

वक्त के हाथ में फूल भी है, पत्थर भी है  |
चाह फूलों की है तो पत्थर भी खाते रहिये  |


जाने कब आखिरी खत, आपके नाम आ जाये,
आपसे जितना बन सके अनुराग लुटते रहिये  |

समय ने जब भी अँधेरे से दोस्तीं की है ,
जला के अपना घर , हमने रौशनी की है  |

हाँ तुम, " मेरी भावनाओ को " और आप
भी इसी तरह मेरी भावनाओ को पढते , सुनते  रहिये   |

मेरी आवाज़ में आवाज़ मिलाते रहिये ,
भावनाए अगर दिल तक पहुचे तो अपनी समझ अपनाते रहिये,
और अगर दिल तक पहुंची तो अगले कुछ पल तक मुस्कुराते रहिये  |